*कल्याणकारी राज्य का दस्तावेज एवं भाजपा का घोषणापत्र 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिये से

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18वीं लोकसभा के लिये कांग्रेस का घोषणा पत्र – जिसे न्याय पत्र नाम दिया गया है, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित है। यह न्याय पत्र उसी कहानी को आगे बढ़ाता है जो 2014 में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (यूपीए) की दूसरी कार्यकाल वाली सरकार (साल 2009-2014) के परास्त होने के बाद ख़त्म हो गई थी। न्याय पत्र बताता है कि पिछले 10 वर्षों में दो लोकसभा चुनावों में मिली पराजयों के बावजूद कांग्रेस अपनी उन नीतियों से नहीं हटी है जो नागरिकों को हर तरह के अधिकारों से लैस करने की पक्षधर है; और अधिकार देने का अर्थ ही न्याय पाने के रास्तों का निर्माण करना होता है। वैसे भी पिछले दस वर्षों के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के तौर-तरीकों पर विचार करें तो उसने लोगों पर अन्याय ही किया है, चाहे वह इनमें राजनैतिक स्तर पर हो या सामाजिक और आर्थिक स्तर पर। 5 न्याय और 25 गारंटियों वाले न्याय पत्र में मोदी के उन्हीं अन्यायों की काट है जिसे कांग्रेस के प्रमुख नेताओं ने पार्टी मुख्यालय जारी में किया।
आम चुनाव में पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को होने वाला है और उससे ठीक पांच दिन पहले अंबेडकर जयंती पर सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपना घोषणापत्र पेश किया। यूँ तो 10 सालों से केंद्र की सत्ता पर बैठी भाजपा को अपने 10 साल के काम दिखाकर ही जनता से वोट मांग लेने चाहिए थे। अलग से घोषणाएँ करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। 2014 में नरेन्द्र मोदी ने अच्छे दिनों का वादा जनता से किया था। अगर अच्छे दिन 2014 से शुरु हो चुके थे, तो उन्हें 2024 में भी जारी रहने दिया जा सकता था। लेकिन हक़ीक़त क्या है, ये भाजपा भी अच्छे से जानती है और अब जनता भी समझने लगी है। इसलिए भाजपा को अपना संकल्प पत्र नाम का घोषणापत्र जारी करना पड़ा। जिसमें महंगाई या बेरोज़गारी पर कोई बात नहीं की गई, अलबत्ता मोदी की गारंटी जैसी शब्दावली के साथ नयी घोषणाओं को पेश किया गया है।
कुछेक मुद्दों को छोड़ दिया तो नागरिक जीवन के लगभग सभी अंगों का स्पर्श करने वाले सभी मसले इसमें शामिल हैं जो बताते हैं कि सत्ता में आने पर कांग्रेस कौन से निर्णय लेगी जिनसे जनसामान्य को न्याय मिलेगा। न्याय के बिंदु सुपरिभाषित हैं और कांग्रेस की अपनी राजनैतिक पहचान व प्रवृत्ति के अनुरूप हैं। साथ ही, आजादी के बाद से उसकी जितनी बार व जिनके भी नेतृत्व में सरकारें चली हैं, उन सभी ने इसी मार्ग पर देश को अग्रसर किया है। स्वतंत्रता जब मिली थी तो अंग्रेज एक ऐसा भारत छोड़ गये थे जो बदहाल था, अविकसित था। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर सभी परवर्ती प्रधानमंत्री इसी राह पर चले थे। यहाँ तक कि गैर कांग्रेस सरकारों ने भी उसी मार्ग पर चलने की ठानी। नरेंद्र मोदी के अविर्भाव के एक दशक पूर्व आई खुद भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने विकास के नाम पर सरकार चलाई तथा ‘शाइनिंग इंडिया’ के नाम पर ही 2004 का चुनाव लड़ा था। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे उन्होंने (वाजपेयी) कालीन के नीचे सरका दिये थे। हो सकता है कि वाजपेयी जी के पास स्पष्ट बहुमत होता और अपने दम चलती हुई सरकार होती तो वे भी ऐसा ही करते जो आज नरेंद्र मोदी कर रहे हैं।
चूंकि नरेंद्र मोदी ने अलग राह पकड़ी क्योंकि वे पहली बार (2014 में) बड़ा बहुमत लेकर तो आये ही थे, 2019 में उनके पास खुद का साफ़ बहुमत था। भारत के सामने दिक्कतों का दौर वहीं से शुरू हुआ जब मोदी-भाजपा ने विकास की बजाय साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ाया। यह विमर्श सारे मुद्दों को अपने भीतर छिपा और समेट लेता है। यहाँ से विपक्ष की राह बहुत दुरुह हो जाती है। विपक्ष ही क्यों, हर उन व्यक्तियों, संगठनों की जो लोकतंत्र में भरोसा करते हैं। यहाँ तक कि खुद सरकार की बनाई तमाम संवैधानिक व स्वायत्त संस्थाएँ भी ऐसा कोई निर्णय नहीं करतीं जिससे शासक कमज़ोर हो। ऐसे में अगर अपनी राख से कांग्रेस उठ खड़ी होती है और दो दर्जन से भी ज़्यादा दलों को अपने साथ लेकर भाजपा की सत्ता को चुनौती देती है, तो बौखलाहट में प्रधानमंत्री मोदी अगर ‘कांग्रेस के न्याय पत्र पर मुस्लिम लीग की छाया’ देखते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। आज कांग्रेस जिस भी हालत में हो, उसने देश पर लम्बे समय तक शासन किया है और उसकी उपलब्धियों को मोदीजी और भाजपा को छोड़कर कोई नहीं नकारता। अगर ऐसा दल चुनावी वादे, गारंटी, घोषणापत्र जैसे नाम न देकर ‘न्याय पत्र’ के हवाले से मैदान में उतरा है तो मोदीजी को चाहिये वे साबित करें कि उनके कार्यकाल में जनता के साथ अन्याय नहीं हुआ है। इससे उलट अगर वे कुतर्क कर उसे मुस्लिम लीग से जोड़ रहे हैं तो वे भूलते हैं कि स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा एक ही सिक्के के दो पहलू थे जो महात्मा गाँधी की लड़ाई में उनका विरोध कर रहे थे। साफ़ है कि अभूतपूर्व विकास का दावा करने वाले मोदीजी का आज भी साम्प्रदायिकता के अलावा कोई आधार नहीं है जिसके बल पर वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस तथ्य को जनता को ध्यान में रखते हुए ही मतदान केन्द्रों का रुख करना चाहिये।
कांग्रेस का घोषणापत्र न्यायपत्र के नाम से जारी किया गया है और भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में ज्ञान का ज़िक्र किया है। जी वाय ए एन का विस्तार हुआ, गरीब, युवा, अन्नदाता और नारी। भाजपा की यह ज्ञान वाली कोशिश कांग्रेस के आगे बचकानी ही नजर आई। क्योंकि भाजपा अगर 10 साल सत्ता में रहने के बाद भी गरीबों, युवाओं, किसानों और महिलाओं के लिए नए वादे कर रही है, तो इसका मतलब यही हुआ कि 10 सालों में इन वर्गों के उत्थान में भाजपा सफल नहीं हो पाई है।
भाजपा ने 2014 में सत्ता में आने के लिए हर साल 2 करोड़ रोज़गार, हर खाते में 15 लाख जैसे वादे किए थे, फिर 2022 तक किसानों की दोगुनी आय की बात कही थी, नमामि गंगे, बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी के सपने लोगों को दिखाये थे लेकिन साल दर साल गुजरने के साथ ही ये तमाम बातें जुमलेबाजी में बदल गईं। हल्की-फुल्की चर्चा और मस्ती-मजाक में किसी पर जुमलेबाजी करने, ऊंची-ऊंची हांकने, मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाने जैसी बातें तो मंजूर हो सकती हैं, लेकिन जब इनका असर देश पर होने लगे तो यह हर नागरिक के लिए ख़तरे की घंटी है कि वह संभल जाये।
भाजपा के 10 सालों में गंगा नदी साफ़ नहीं हुई, बल्कि इस दौरान काशी विश्वनाथ से लेकर महाकाल तक कई मंदिरों में कॉरिडोर बनाकर उन्हें आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया गया। उत्तराखंड में हिमालय में पड़ रही दरारों को अनदेखा कर ऑल वेदर रोड जैसी परियोजनाएँ शुरु हो गईं। एक साल तक किसानों को आंदोलन पर बैठना पड़ा, अब भी किसान आंदोलनरत हैं, इस बात को भुलाकर किसानों के उत्थान के नए वादे हो रहे हैं। मणिपुर से लेकर महिला पहलवानों तक नारी उत्पीड़न के कई गंभीर मामलों को अनदेखा कर नारी शक्ति की बात की जा रही है। बुलेट ट्रेन अब तक नहीं चली, अब नयी वंदे भारत की बात होने लगी है और ओडिशा में हुई बड़ी रेल दुर्घटना के दोषियों को कब सजा मिलेगी, वरिष्ठ नागरिकों के लिए रियायती टिकट की व्यवस्था क्या फिर से शुरु होगी, इस पर कोई बात नहीं की जा रही।
मोदीजी के शासन में बेरोज़गारी के आंकड़े बीते 45 सालों में सबसे ज़्यादा क्यों रहे? इसका कोई जवाब न देकर पकौड़ा रोज़गार का विकल्प मोदी सरकार ने पेश किया था, अब सरकार रोज़गार की बात ही नहीं कर रही और युवाओं को लुभाने के लिए पेपरलीक पर कड़े कानून की बात कर रही है। पेपर तो पिछले 10 सालों में कई बार लीक हुए, तो अब तक सरकार ने कोई कानून क्यों नहीं बनाया, ये सवाल भाजपा से पूछा जाना चाहिए। सरकार का ये भी दावा है कि उसने करोड़ों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला, लेकिन यदि यह सच है तो फिर 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ़्त अनाज क्यों दिया जा रहा है। क्या लोग इसी तरह 5 किलो अनाज के मोहताज बनकर अपने स्वाभिमान को छोड़कर केवल सांस लेते रहने के लिए जिंदा रहेंगे? क्या श्री मोदी 2047 के विकसित भारत में ऐसे ही ज़िंदा लोगों का देश बनाना चाहते हैं?
भाजपा के घोषणापत्र में एक नया शिगूफा 2036 में ओलंपिक की मेजबानी का छोड़ा गया है। ओलंपिक की मेजबानी शायद ही किसी देश में चुनाव का मुद्दा बना हो, श्रीमान नरेन्द्र मोदी ने इस बात को भी मुमकिन कर दिखाया है। ओलंपिक किस देश में होंगे, यह तय करना अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के सदस्यों का काम है, और समिति किसी पार्टी नहीं, बल्कि देश के हालात देखकर उसका चयन करती है। अभी 2032 तक की मेजबानी तय हो चुकी है, मगर श्री मोदी ने 2036 की बात अपने घोषणापत्र में कर दी है। मानो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति भारत को नहीं भाजपा को ओलंपिक की मेजबानी के लिए चुनेगी।
भाजपा के घोषणापत्र में ओलंपिक की मेजबानी का ज़िक्र ठीक वैसा ही है जैसे 15-15 लाख हर खाते में डालने की बात थी। तब लोगों को ये आसान गणित समझाया गया था कि स्विस बैंकों में रखा हुआ काला धन मोदीजी देश में ले आएंगे और उसे फिर सारे लोगों में बांट देंगे। अभी प्रवर्तन निदेशालय द्वारा प.बंगाल में पकड़ी गई अवैध धनराशि के भी इसी तरह वितरण की बात श्री मोदी ने कही है। लोगों को यह सुनकर ही अच्छा लगता है कि बैठे-ठाले उन्हें लाखों की रकम मिल जाएगी। मगर 10 सालों में लोगों को नोटबंदी, जीएसटी और बैंकों के दिवालिया होने या बड़े कर्जदारों के देश से भाग जाने पर लाखों का चूना लग चुका है।
यह इतिहास के सभी दौर और उन सभी देशों में हुआ है जब तानाशाही प्रवृत्ति का कोई शासक बड़े जनसमर्थन के साथ सत्ता सम्भालता है। वह समाज में एक वर्ग को ऐसे ही किसी नफ़रत से भरता है और जनता का भावनात्मक दोहन करता है। उसके प्रति लोगों का अनुराग और श्रद्धा इस कदर होती है कि जनता सच-झूठ और सही-गलत में भेद नहीं कर पाती। अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को वह या तो दबाता जाता है या फिर जनता ही उसके लिये यह काम करती है। ऐसे ही शासन के हर अंग उसकी सत्ता को बचाने का काम करते हैं। उसके ख़िलाफ़ कोई भी फ़ैसला देश को कमज़ोर करने वाला माना जाता है और उसकी आलोचना को देश की बुराई करना मान लिया जाता है। जनता यह भी समझती है कि उनका प्रिय राजा कोई गलत निर्णय ले ही नहीं सकता। वह जो कर रहा है सही है और देश के भले के लिये है। संक्षेप में कहें तो जो भारत में हो रहा है, बस वही। भाजपा के घोषणापत्र में इन भगोड़ों को वापस लाने की कोई बात नहीं है, बैंकिंग व्यवस्था मजबूत करने, छोटे और लघु व्यवसायियों को राहत मिलने, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और नए सार्वजनिक निकायों को स्थापित करने की कोई बात नहीं है। केवल सुनहरे ख़्वाबों को नए सिरे से दिखाने की कोशिश की गई है। लेकिन जनता अब शायद दिन में सपने देखने से मना कर दे।
शोधार्थी
रुपेश रॉय
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा