*बिहार प्रभारी मनीष कुमार की रिपोर्ट*
वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादकता को बढ़ाने एवं भुखमरी की समस्या से निपटने में रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन और उपयोग की अहम भूमिका रही है। बढ़ती वैश्विक आबादी का पेट भरने के लिए आगामी दशकों तक कृषि उत्पादकता को और अधिक बढ़ने पर जोर देना होगा। इसके लिए कृषि उपादानों की बढ़ती मांग से उर्वरकों के उत्पादन में कई गुना वृद्धि होने की प्रबल संभावना है।
रासायनिक उर्वरकों में नाइट्रोजन सर्वाधिक लोकप्रिय व सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला उर्वरक है। किसान आधिकाधिक उपज की आशा में फसल की आवश्यकता से अधिक अथवा अनुषंसित मात्रा से अधिक नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग कर रहे हैं। इसके मुख्य रूप से दो कारण समझ में आते हैं, पहला यह की नाइट्रोजन खाद (मुख्यतःयूरिया) के इस्तेमाल को किसान सीधे-सीधे अधिक फसल उत्पादन का प्रमुख कारक समझते हैं] एवं दूसरा यह कि नत्रजन उर्वरक सरकार द्वारा प्रदत्त सब्सिडी के कारण सबसे सस्ता व सुलभ रासायनिक उर्वरकों में से एक है। कृषि में नत्रजन उर्वरकों की बढ़ती मांग व खपत के साथ ही इससे जुड़ी संभावित प्रदूषण व पर्यावरणीय नुकसान का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित किया है कि वैश्विक स्तर पर कृषि में नाइट्रोजन उर्वरकों का पौधों द्वारा उपयोग दक्षता सिर्फ 40 प्रतिषत ही है। शेष बचा हुआ नत्रजन तत्व रासायनिक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए वातावरण में नाइट्रोजन गैस] अमोनिया गैस अथवा नाइट्रस ऑक्साइड गैस के रूप में वापस चला जाता है एवं कुछ भाग पानी में घुलनशील नाइट्रेट के रूप में भूजल को प्रदूषित करता है। नाइट्रस ऑक्साइड एक बहुत ही घातक वह लंबे समय तक वातावरण में रहकर ग्लोबल वार्मिंग पैदा करने वाला ग्रीनहाउस गैस है।
भारत में उर्वरकों की बढ़ती मांग के ऑंकड़े बताते हैं कि यहां के किसान प्रतिवर्ष तकरीबन 5 करोड़ टन उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिस पर भारत सरकार करीब 1.5 लाख करोड़ से 1.75 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रदान करती है।उर्वरकों की मांग प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है किंतु इसके अनुरूप फसलों की उपज नहीं बढ़ पा रही है, जिसका एक बड़ा कारण उर्वरकों का अनुचित व गलत तरीके या समय पर इस्तेमाल है। बिहार के किसान प्रतिवर्ष औसतन (245.25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (वर्ष (2019-20 के आंकड़े) उर्वरकों का इस्तेमाल अपने खेतों में कर रहे हैं, जो देश में सर्वाधिक है। किंतु कृषि उत्पादन की अगर हम बात करें तो हमारी धान-गेहूं आधारित खेती का औसत उत्पादन 2.2 टन प्रति हेक्टेयर है जो राष्ट्रीय औसत 3.0 टन प्रति हेक्टेयर से काफी कम है।
बिहार के किसानों द्वारा खेती में उर्वरकों के इस्तेमाल के व्यवहार को समझने के लिए हमारी संस्था ’पर्यावरण रक्षा कोष’ अपने स्थानीय सहयोगी संस्था के साथ जुड़कर उत्तरी बिहार के 6 जिलों में (पश्चिम चंपारण] पूर्वी चंपारण] सीतामढ़ी] मुजफ्फरपुर] वैशाली एवं शिवहर) में धान गेहूं की खेती करने वाले 13200 किसानांे की कृषि पद्धति का अध्ययन वर्ष 2022-23 में किया गया है। अध्ययन के परिणाम बताते हैं कि उत्तरी बिहार के इन जिलों में चार में से तीन किसान अपने खेतों में नाइट्रोजन खाद का अनुशंसित मात्र से अधिक प्रयोग कर रहे हैं। इससे उनकी कृषि उपज तो नहीं बढ़ रही है] बल्कि उर्वरकों पर अधिक व्यय] नाइट्रस ऑक्साइड नामक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन एवं भूगर्भीय जल स्रोतों में नाइट्रेट विषाक्त के परिणाम आ रहे हैं। सरकार नत्रजन उर्वरकों पर अत्यधिक सब्सिडी प्रदान करती है जिसका राजस्व नुकसान भी हो रहा है।
किसानों द्वारा अधिक नत्रजन ¼यूरिया½ खाद प्रयोग के कारक
किसानों में यूरिया इस्तेमाल के प्रति जागरूकता व प्रशिक्षण का अभाव।
यूरिया इस्तेमाल को सीधे तौर पर अधिक उपज से जोड़ना
यूरिया खाद का अन्य उर्वरकों की अपेक्षा सस्ता उपलब्ध होना।
यूरिया इस्तेमाल के त्वरित परिणाम के रुप में फसलों में हरा पन दिखाना।
मिट्टी जांच की सुविधा कम होना।
फसलों में संतुलित खाद प्रयोग की जानकारी का अभाव।
अत्यधिक यूरिया इस्तेमाल के दुष्प्रभाव की जानकारी का अभाव।
कृषि क्षेत्र में ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने की सराहनीय पहल
कृषि कार्यों से उत्पन्न होने वाले ग्रीनहाउस गैसों में नाइट्रस ऑक्साइड का ग्लोबल वार्मिंग में सबसे बड़ा योगदान है। खेती में प्रयोग होने वाले नाइट्रोजन उर्वरकों को सीधे तौर पर इस गैस के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार माना गया है। सरकार द्वारा जारी सब्सिडी भी किसानों द्वारा नाइट्रोजन उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल की एक बड़ी वजह है। पर्यावरण रक्षा कोष के वैज्ञानिकों ने नाइट्रोजन बैलेंस फ्रेमवर्क अथवा N-बैलेंस टूल विकसित किया है जिसकी मदद से खेती में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता के साथ हीं फसलोत्पादन के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन किया जा सकता है। इस फ्रेमवर्क की मदद से फसल उत्पादन में नाइट्रोजन उर्वरकों के उपयोग की कुशलता का आकलन एवं सतत उच्च उत्पादकता बनाए रखने हेतु फसल में आवश्यक उर्वरकों के प्रयोग की अनुशंसा भी प्राप्त की जा सकती है। नाइट्रोजन बैलेंस फ्रेमवर्क को मोटे तौर पर ऐसे समझ जा सकता है कि फसल उत्पादन के दौरान शुरुआत से फसल कटाई तक कुल नाइट्रोजन का प्रयोग (कार्बनिक व अकार्बनिक या रासायनिक) की मात्रा में जितनी मात्रा फसल द्वारा अवशोषित होती है (फसल के दानों एवं भूसा में नाइट्रोजन की मात्रा) के अंतर से ज्ञात होता है।
N-बैलेंस (कि-ग्रा-/हेक्टेयर)= कुल नत्रजन का प्रयोग (कि-ग्रा-/हेक्टेयर) – फसल द्वारा अवशोषित नत्रजन (कि-ग्रा-/हेक्टेयर)
N-बैलेंस स्कोर फसल हेतु निर्धारित सेफ जोन (सुरक्षित रेंज) में होना चाहिए। अगर स्कोर सेफ जोन से अधिक या काम है तो संबंधित खेत या फसल के लिए वैज्ञानिक सलाहकार अपनाकर N-बैलेंस स्कोर को सेफ जोन में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
N-बैलेंस स्कोर के मायने क्या हैः
पर्यावरण रक्षा कोष के वैज्ञानिकों ने विभिन्न फसलों (धान, गेहूं, मक्का, सोयाबीन, गन्ना, कपास, आदि) हेतु अलग-अलग कृषि जलवायु क्षेत्रों में लगातार प्रयोग करते हुए अलग-अलग सेफ जोन का पता लगाया है। N-बैलेंस सेफ जोन का मतलब है कि उर्वरकों का प्रयोग फसल की उत्पादन की आवश्यकता अनुसार किया गया है। अगर N-बैलेंस स्कोर सेफ जोन से अधिक होने का मतलब है कि फसल की आवश्यकता से अधिक उर्वरकों का प्रयोग किया गया है जिसका फसल उत्पादन में कोई लाभ नहीं हुआ एवं उर्वरकों की बर्बादी से ग्रीन हाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन एवं उर्वरकों पर हुए खर्च व्यर्थ हो गए। इसी प्रकार अगर N-बैलेंस स्कोर सेफ जोन से कम होने का अर्थ है कि फसल उत्पादन हेतु जरूरत से कम उर्वरकों का प्रयोग किया गया है एवं फसल ने मिट्टी में पीले से उपलब्ध पोषण का प्रयोग किया है। यह स्थिति लंबे समय तक उच्च फसल उत्पादन को सक्षम नहीं रख सकती है।
कृषि क्षेत्र में नाइट्रोजन बैलेंस फ्रेमवर्क या N-बैलेंस का महत्वः
आज के परिवेश में जहां जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से कृषि के साथ&साथ सभी क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं] ऐसे में नाइट्रोजन बैलेंस फ्रेमवर्क या N-बैलेंस टूल को अपना कर हम कृषि उत्पादन व उत्पादकता को सतत बढ़ावा देते हुए पर्यावरणीय नुकसान को कम करने में सक्षम होंगे। N-बैलेंस टूल कृषि उत्पादकता को बरकरार रखते हुए किसानों के हितों की रक्षा करती है] उर्वरकों पर किसानों के होनेवाले खर्च एवं सरकार द्वारा प्रदान की गयी सब्सिडी के साथ ही कृषि क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर भी लगाम लगती है।